चौथे चरण के मतदान पर विशेष : हे ! एक दिन के महाराजा, आश्वासन का पिटारा लीजिए और बदले में वोट दीजिए
मतदाता अगर राजा ,महाराजा होता है तो मात्र एक (मतदान वाले) दिन का ही। समस्याओं से जूझने के मामले में बाकी दिन यानी अगला मतदान होने तक उसकी स्थिति दास से भी बदतर होती है।
लोकसभा के लिए आज सोमवार को चौथे चरण का मतदान है। लेकिन सबसे ज्यादा वोट किस राजनीतिक दल के पक्ष में पड़ेगा। यह दावा स्पष्ट तौर पर नहीं किया जा सकता क्योंकि अधिकांश लोकसभा क्षेत्रों में मतदाताओं का रुख प्रत्याशियों के समझ से परे है। यही नहीं लोग प्रत्याशियों द्वारा वोट मांगे जाने की संदर्भ में उनकी नकल नाटकीयता का भी प्रदर्शन करने से नहीं चूकते। जिसके मुताबिक देश का हर मतदाता प्रत्याशियों के लिए एक दिन का महाराजा ही होता है। जिसे वह अपने आश्वासनों का पिटारा देने के बदले वोट के बल पर जीत हासिल करने के रूप में अगले चुनाव तक के लिए राजा बनना चाहते हैं।
कुल मिलाकर आज होने वाले चौथे चरण के मतदान के लिए जीत के इरादे से मतदाताओं को लुभाने की कोशिश किसी भी राजनीतिक दल ने नहीं छोड़ी है।
इस लोकसभा चुनाव की शुरुआत से ही लगभग हर राजनीतिक दल द्वारा लोकलुभावन वादों का पिटारा हर बार की तरह इस बार भी खोला गया। लेकिन यहां मत हासिल करने के रूप मेंकितना सफल हो पाया है। इसका पता 4 जून को मतगणना के बाद ही चल पाएगा।
हाल फिलहाल अब तक के तीन चरण की संपन्न हुए चुनाव में तो मतदाता खामोशी अख्तियार कर सभी का तमाशा देखने में व्यस्त दिखा।
प्रत्याशियों के चयन के बाद बीते माह से चुनाव प्रचार का शोर तो चारों ओर संसदीय क्षेत्र में जमकर दिखाई पड़ा, लेकिन मतदाताओं में ऐसा कोई रुझान नहीं दिखा ,जिससे कहा जा सके कि इस दल का प्रत्याशी जीत हासिल कर सकता है। संक्षेप में कहें तो मतदाताओं की खामोशी से प्रत्याशियों की धड़कने भी बढ़ी हुई हैं।
जहां तक प्रत्याशियों द्वारा जनता को भरोसा दिए जाने और मतदाताओं द्वारा उस पर यकीन किया जाने का सवाल है। मतदाताओं की नजर में सच्चाई यही है कि हर बार चुनाव के बाद मतदाता अपने को ठगा सा महसूस करता है और उसे समझ भी आ जाता है कि नेताओं के वादे उसे एक बार फिर बेवकूफ बनाने में सफल रहे लेकिन जब तक वह यह सच्चाई समझ पाता है ,तब तक कहानी बहुत आगे निकल चुकी होती है, क्योंकि चुनाव से पूर्व जो जनता अपने को राजा समझने की भूल कर बैठती है। चुनाव के बाद उसे ही या पता भी चल जाता है कि वह वास्तव में राजा नहीं बल्कि दास ही है। और अगर राजा है तो मात्र एक (मतदान वाले ) दिन की ही। बाकी दिन मतलब अगला मतदान होने तक उसकी स्थिति दास से भी बेहतर होती है।
लेकिन इस बार की मतदाताओं की खामोशी जिस आशय का संकेत देती है, उसके मुताबिक
जागरूक और समझदार मतदाता अपनी तकदीर की इबारत ऐसी लिखना चाहते हैं कि वो चुनाव बाद अपने को बेवकूफ़ महसूस न कर सके। इसीलिए उन्होंने नेताओं का बारीकी से आंकलन करने के साथ ही खमोशी अख्तियार कर रखी है।
दरअसल कहा ऐसा भी जाता है कि दुनिया में लोगों को बेवकूफ बनाने वाले लोग मोटे तौर पर दो तरह के होते हैं। एक वे, जो यह जानते हैं कि वे झूठ बोल रहे हैं और लोगों को बेवकूफ बना रहे हैं। ये लोगों को जान-बूझकर इसलिए बेवकूफ बनाते हैं, क्योंकि उन्हें यह यकीन होता है कि लोगों के साथ ईमानदारी बरतने के बजाय उन्हें बेवकूफ बनाना ज्यादा फायदेमंद है। और शायद ऐसा करने वाले लोग ही आम तौर पर बहुत फायदे में रहते हैं।
इसी क्रम में बेवकूफ बनाने वाले दूसरी तरह के लोग वे होते हैं, जो नहीं जानते कि वे लोगों का नुकसान कर रहे हैं । उन्हें गड्ढे में डाल रहे हैं। माना जाता है कि ऐसे लोग जनता को परोसे जाने वाले झूठ पर पूरी ईमानदारी से भरोसा करते हैं।
माना जाता है कि ऐसे लोग आम तौर पर किसी चर्चित कथित बड़े नेता की छत्रछाया में दूसरे दरजे के नेता या तीसरे दरजे के समर्थक होते हैं। अगर किसी को भी यह पता है कि जब किसी तानाशाह को फांसी दी गई, तब वे मतलब दूसरे नंबर की बेवकूफ फांसी के तख्ते पर चढ़ते वक्त भी उस तानाशाह की जय बोल रहे थे।
दरअसल पहले किस्म के लोगों में विवेक का बहुत अभाव होता है जबकि चतुराई में बेजोड़ होते हैं। इसी तरह से दूसरे किस्म के लोगों में चतुराई और मूर्खता का एक घातक मिश्रण होता है, जिसे सूंघकर उनका विवेक बेहोश हो जाता है। ये दूसरों के साथ-साथ अपने भी पैरों पर कुल्हाड़ी मारते चलते हैं।
अंततः यही कहा जा सकता है कि यह चुनावी मौसम भी तरह-तरह के चतुर बुद्धिमानों और बेवकूफों लवरेज है। और यही बेवकूफी या बुद्धिमानी ही प्रत्याशियों की हार जीत का कारण बनेगी जिसके लिए 4 जून का इंतजार है, जिसके लिए बेवकूफ ही नहीं बुद्धिमान भी बेकरार है।
: प्रस्तुति :
सुनील बाजपेई
(कवि ,गीतकार ,लेखक एवं
वरिष्ठ पत्रकार),
कानपुर।
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